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बुधवार, 31 अगस्त 2022

भद्रा का मतलब क्या होता है?

 

भद्रा का मतलब क्या होता है?
यूं तो 'भद्रा' का शाब्दिक अर्थ है 'कल्याण करने वाली' लेकिन इस अर्थ के विपरीत भद्रा या विष्टि करण में शुभ कार्य निषेध बताए गए हैं। ज्योतिष विज्ञान के अनुसार अलग-अलग राशियों के अनुसार भद्रा तीनों लोकों में घूमती है। जब यह मृत्युलोक में होती है, तब सभी शुभ कार्यों में बाधक या या उनका नाश करने वाली मानी गई है।

भद्रा से बचने के उपाय Bhadra upay

 भद्रा से बचने के उपाय

ज्योतिष शास्त्र में भद्रा के दुष्प्रभावों से बचने के लिए कुछ उपाय बताए गए हैं। अगर भद्रा में कोई कार्य कर रहे हैं तो सुबह उठकर भद्रा के बारह नाम का स्मरण करें और भद्रा की पूजा-अर्चना करनी चाहिए। ऐसा करने से भद्रा का अशुभ प्रभाव नहीं पड़ता है और आपके कार्य बिना किसी अड़चन के पूरे हो जाते हैं।

भद्रा को 12 नामों से जाना जाता है-
धन्या, दधमुखी, भद्रा, महामारी, खरानना, कालरात्रि, महारूद्रा, विष्टि, कुल पुत्रिका, भैरवी, महाकाली और असुर क्षयकारी

शनिवार, 27 अगस्त 2022

Ganesh ji ki Mahatta

1. गणपति को दूर्वा क्यों चढ़ाते हैं?

दूर्वा एक प्रकार की घास है, जो गणेशजी को पूजा में चढ़ाई जाती है। गणेशजी और दूर्वा के संबंध में अनलासुर नाम दैत्य की कथा प्रचलित है। कथा के अनुसार सभी देवता और मनुष्य अनलासुर के आतंक से त्रस्त थे। तब देवराज इंद्र, सभी देवी-देवता और प्रमुख ऋषि-मुनि महादेव के पास पहुंचे। शिवजी ने कहा कि ये काम सिर्फ गणेश ही कर सकते हैं। इसके बाद सभी देवता और ऋषि-मुनि भगवान गणेश के पास पहुंचे।

देवी-देवताओं और सभी प्राणियों की रक्षा के लिए गणपति अनलासुर से युद्ध करने पहुंचे। तब इन दोनों के बीच घमासान युद्ध हुआ। अनलासुर पराजित ही नहीं हो रहा था, तब भगवान गणेश ने उसे पकड़कर निगल लिया। इसके बाद उनके पेट में बहुत जलन होने लगी।

भगवान गणेश के पेट की जलन शांत करने के लिए कश्यप ऋषि ने दूर्वा की 21 गांठें बनाकर उन्हें खाने के लिए दी। जैसे ही उन्होंने दूर्वा खाई, उनके पेट की जलन शांत हो गई। तभी से भगवान गणेश को दूर्वा चढ़ाने की परंपरा प्रारंभ हुई।
 

2. गणपति, लक्ष्मी और सरस्वती एक साथ क्यों पूजे जाते हैं?

भगवान गणेश, लक्ष्मी और सरस्वती की एक साथ पूजा खासतौर पर दीपावली पर की जाती है। दीपावली सुख-समृद्धि का पर्व माना जाता है। इस दिन गणेश यानी बुद्धि, लक्ष्मी यानी धन और सरस्वती यानी ज्ञान की पूजा एक साथ की जाती है। क्योंकि, बिना बुद्धि के ज्ञान नहीं आ सकता और बिना ज्ञान के लक्ष्मी अर्जित नहीं की जा सकती। इस लिए लक्ष्मी पूजन में भगवान गणेश को भी पूजा जाता है। गणेश पुराण और शिव पुराण में भी ये कहा गया है कि लक्ष्मी की पूजा गणपति के बिना अधूरी है, बिना बुद्धि के देवता के शुद्ध लक्ष्मी का आगमन नहीं हो सकता।

3.गणपति को तुलसी क्यों नहीं चढ़ाते हैं?

भगवान विष्णु और उनके अवतारों को तुलसी के बिना भोग नहीं लगाया जाता है, लेकिन भगवान गणेश की पूजा में तुलसी वर्जित मानी गई है। एक पौराणिक कथा है कि तुलसी ने भगवान गणेश से विवाह करने की प्रार्थना की थी, लेकिन गणेशजी ने मना कर दिया। इस वजह तुलसी क्रोधित हो गईं और उसने गणेशजी को दो विवाह होने का शाप दे दिया।

इस शाप की वजह से गणेशजी भी क्रोधित हो गए और उन्होंने भी तुलसी को शाप देते हुए कहा कि तुम्हारा विवाह एक असुर से होगा। असुर से विवाह होने का शाप सुनकर तुलसी दुःखी हो गई। तुलसी ने गणेशजी से क्षमा मांगी। तब गणेशजी ने कहा तुम्हारा विवाह असुर से होगा, लेकिन तुम भगवान विष्णु को प्रिय रहोगी। तुमने मुझे शाप दिया है, इस वजह से मेरी पूजा में तुलसी वर्जित ही रहेगी।

शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

POLA PARVA 2022

 

पोला त्योहार मनाने के पीछे यह कहावत है कि अगस्त माह में खेती-किसानी का काम समाप्त होने के बाद इसी दिन अन्न माता गर्भ धारण करती है यानी धान के पौधों में इस दिन दूध भरता है इसीलिए यह त्योहार मनाया जाता है। यह त्योहार पुरुषों-स्त्रियों एवं बच्चों के लिए अलग-अलग महत्व रखता है। इस दिन पुरुष पशुधन (बैलों) को सजाकर उनकी पूजा करते हैं। इसके साथ ही इस दिन 'बैल सजाओ प्रतियोगिता' का आयोजन किया जाता है।
 
महिलाएं इस त्योहार के वक्त अपने मायके जाती हैं। छोटे बच्चे मिट्टी के बैलों की पूजा करते हैं। इस दिन शहर से लेकर गांव तक पोला पर्व की धूम रहती है। इस दौरान जगह-जगह बैलों की पूजा-अर्चना होती है। 
 
पर्व के 2-3 दिन पहले से ही बाजारों में मिट्टी के बैलजोड़ी बिकते दिखाई देते हैं। बढ़ती महंगाई के कारण इनके दामों में भी बढ़ोतरी हो गई है। इसके अलावा मिट्टी के अन्य खिलौनों की भी भरमार बाजारों में दिखाई देती है। पिठोरी अमावस्या के दिन मिट्टी और लकड़ी से बने बैल चलाने की भी परंपरा है।
:- Shripragya sewa Kendra Saikheda THANA
Main Centre-amrawati ghat tah Multai dist Betul mp
9685126801
 

गुरुवार, 11 अगस्त 2022

 


शुभ कार्य के लिया हर दिन शुभ है। - Akhandjyoti December 1966 :: (All World Gayatri Pariwar) http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/Decemb

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/December/v2.18

 



(रक्षा बंधन कब है 2022 में) : रक्षा बंधन 2022 की तारीख को लेकर दुविधा की स्थिति है। बता दें कि भाई और बहन के स्नेह के प्रतीक का ये त्योहार सावन महीने के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि (Sawan Purnima 2022 Date) को मनाया जाता है। इसी के साथ ही सावन मास की समाप्ति होती है और भाद्रपद मास का आगमन होता है। इस साल पूर्णिमा तिथि 11 अगस्त को शुरू हो रही है और इसका समापन 12 अगस्त को होगा। लेकिन भद्रा के साए की वजह से राखी इस साल में 11 अगस्त को शुभ नहीं मानी जा रही है। इस वजह से कुछ लोग 12 अगस्त को भी रक्षा बंधन (Raksha Bandhan 2022 Date, Time in India) मनाएंगे। 
Raksha Bandhan 2022: 11 और 12 अगस्त में से राखी बांधने की सही डेट कौन सी है
पंचांग के अनुसार, सावन मास की पूर्णिमा तिथि 11 अगस्त को सुबह 09:34 पर शुरू होगी जो 12 अगस्त को सुबह 07:18 तक रहेगी। इसके अनुसार 11 अगस्त को रक्षा बंधन मनाया जाना चाहिए। लेकिन 11 अगस्त को ही सुबह 09:35 बजे भद्रा लग जाएगी जो इस तारीख पर रात्रि 08:30 बजे तक जारी रहेगी। इसके अनुसार 11 अगस्त को रात 08:30 बजे के बाद रक्षा बंधन (Raksha Bandhan 2022 Date in Hindi) का पर्व मनाया जा सकता है। 
  मानना है कि हिंदू धर्म में शुभ काम सूर्यास्त के बाद नहीं किए जाते हैं, तो अधिकतर बहनें रात के समय भाइयों को राखी बांधना सही नहीं मानेंगी। फिर पूर्णिमा की उदया तिथि 12 अगस्त (when is Raksha Bandhan 2022) को है जिसके नाते इस दिन का समय राखी बांधने के लिए ज्यादा उत्तम होगा। हालांकि 12 अगस्त को पूर्णिमा तिथि सुबह 07:18 तक रहेगी। लेकिन उदया तिथि का दिन होने की वजह से 12 अगस्त को दिन के समय कभी भी राखी बांधी जा सकती है। 
Raksha Bandhan 2022 Date, Time: राखी बांधने का शुभ मुहूर्त 
सावन मास 2022 शुक्ल पक्ष पूर्णिमा तिथि आरंभ- 11 अगस्त, गुरुवार को सुबह 10:38 मिनट से
पूर्णिमा तिथि समापन- 12 अगस्त 2022, शुक्रवार, सुबह 07:06 मिनट
रक्षाबंधन 2022 में भद्रा काल कब से है- 11 अगस्त 2022, गुरुवार को सुबह 10:38 से 
रक्षाबंधन 2022 में भद्रा काल समापन- 11 अगस्त 2022, रात 8:51 पर
11 अगस्त को रक्षा बंधन 2022 का शुभ मुहूर्त-  रात 8:51 से रात 09:12 तक
12 अगस्त 2022 को राखी बांधने का शुभ समय 
12 अगस्त 2022, शुक्रवार को अभिजीत मुहूर्त : 11:59 AM to 12:52 PM

शुभ चौघड़िया समय : 12:25 PM to 02:05 PM
शुभ कार्य के लिया हर दिन शुभ है। - Akhandjyoti December 1966 :: (All World Gayatri Pariwar) http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/December/v2.18


रविवार, 7 अगस्त 2022

HathYog हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य


 

' हठ' शब्द की रचना 'ह' और 'ठ' दो रहस्यमय एवं प्रतीकात्मक अक्षरों से हुई है। 'ह' का अर्थ 'सूर्य' और 'ठ' का अर्थ 'चंद्र' है। योग का अर्थ इन दोनों का संयोजन या एकीकरण है। 

हठयोग का अर्थ , परिभाषा, उद्देश्य
हठयोग का अर्थ
भारतीय चिन्तन में योग मोक्ष प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है, योग की विविध परम्पराओं (ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग) इत्यादि का अन्तिम लक्ष्य भी मोक्ष (समाधि) की प्राप्ति ही है। हठयोग के साधनों के माध्यम से वर्तमान में व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ तो करता ही है पर इसके आध्यात्मिक लाभ भी निश्चित रूप से व्यक्ति को मिलते है। 


हठयोग- नाम से यह प्रतीत होता है कि यह क्रिया हठ- पूर्वक की जाने वाली है। परन्तु ऐसा नही है अगर हठयोग की क्रिया एक उचित मार्गदर्शन में की जाये तो साधक सहजतापूर्वक इसे कर सकता है। इसके विपरित अगर व्यक्ति बिना मार्गदर्शन के करता है तो इस साधना के विपरित परिणाम भी दिखते है। वास्तव में यह सच है कि हठयोग की क्रियाये कठिन कही जा सकती है जिसके लिए निरन्तरता और दृठता आवश्यक है प्रारम्भ में साधक हठयोग की क्रिया के अभ्यास को देखकर जल्दी करने को तैयार नहीं होता इसलिए एक सहनशील, परिश्रमी और तपस्वी व्यक्ति ही इस साधना को कर सकता है। 

को तैयार नहीं होता इसलिए एक सहनशील, परिश्रमी और तपस्वी व्यक्ति ही इस साधना को कर सकता है। 

संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में हठयोग शब्द को दो अक्षरों में विभाजित किया है। 

1. ह -अर्थात हकार 

2. ठ -अर्थात ठकार 

हकार - का अर्थ है सूर्य तथा ठकार का अर्थ चन्द्र से है। हकार अर्थात सूर्य तथा ठकार अर्थात चन्द्र इन दो नदियों का मिलन ही हठयोग है। 



हठयोग की परिभाषा- 
सिद्ध सिद्धान्त संग्रह के अनुसार : 

हकार: कीर्तित: सूर्यष्ठकारश्चन्द्र उच्यते । 

सर्याचन्द्रमसोर्योगात हठयोगो निगयते ॥

अर्थात हकार (सूर्य) तथा ठकार (चन्द्र) नाडी के योग को हठयोग कहते है। 

योगशिखोपनिषद के अनुसार- योगशिखोपनिषद में भी हकार को सूर्य तथा ठकार को चन्द्र मानकर सूर्य और चन्द्र के संयोग को हठयोग कहा गया है। 

हकारेण तु सूर्य: स्यात सकारेणेन्दुरूच्यते। 

सूर्याचन्द्रमसोरैक्यं हढ इव्यमिधीयते ।। 

योगशिखोपनिषद में योग की परिभाषा देते हुए कहा है कि अपान व प्राण, रज व रेतस, सूर्य व चन्द्र तथा जीवात्मा व परमात्मा का मिलन योग है। यह परिभाषा भी हठयोग की सूर्य व चन्द्र के मिलन की स्थिति को प्रकट करती है 

योऽपानप्राणयोरैक्यं स्वरजो रेतसोस्तथा।। 

सूर्याचन्द्रमसोयोंगो जीवात्मपरमात्मनोः। 

एवं तु द्वन्द्वजालस्य संयोगो योग उच्यते।। 

ह (सूर्य) का अर्थ सूर्य स्वर, दायाँ स्वर, पिंगला स्वर अथवा यमुना तथा ठ (चन्द्र) का अर्थ चन्द्र स्वर, बाँया स्वर, इडा स्वर अथवा गंगा लिया जाता है। दोनों के संयोग से अग्निस्वर, मध्य स्वर, सुषुम्ना स्वर अथवा सरस्वती स्वर चलता है, जिसके कारण ब्रह्मनाड़ी में प्राण का संचरण होने लगता है। इसी ब्रह्मनाड़ी के निचले सिरे के पास कुण्डलिनी शक्ति सुप्तावस्था में स्थित है। जब साधक प्राणायाम करता है तो प्राण के आघात से सुप्त कुण्डलिनी जाग्रत होती है तथा ब्रह्मनाडी में गमन कर जाती है जिससे साधक में अनेकानेक विशिष्टताएँ आ जाती हैं। यह प्रक्रिया इस योग पद्धति में मुख्य है। इसलिए इसे हठयोग कहा गया है। 
यही पद्धति आज आसन, प्राणायाम, षटकर्म, मुद्रा आदि के अभ्यास के कारण सर्वाधिक लोकप्रिय हो रही है। महर्षि पतंजलि के मनोनिग्रह के साधन रूप में इस पद्गति का प्रयोग अनिवार्यतः उपयोगी बताया गया है। 



स्वामी स्वात्माराम जी के अनुसार-

हठयोग प्रदीपिका में स्वामी स्वात्माराम ने हठयोग को परिभाषित करते हुए कहा है कि हठपूर्वक मोक्ष का भेद हठयोग से किया जा सकता है। 

उद्घाटयेत् कपा्ट तु तथा कुचिंकया हठात्। 

कुण्डलिन्या तथा योगी मोक्षद्वारं विभेदयेत् ।। (हठ प्रदीपिका- 3/101) 

अर्थात जिस प्रकार चाभी से हठात किवाड़ को खोलते है उसी प्रकार योगी कुण्डलिनी के द्वार (हठात्) मोक्ष द्वार का भेदन करते है। 

हठयोग का उद्देश्य / हठयोग की उपयोगिता
हठयोग प्रदीपिका में स्वामी स्वात्माराम जी द्वारा यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि- 'केैवल राजयोगाय हठविद्योपदिश्यते' अर्थात् केवल राजयोग की साधना के लिए ही हठविद्या का उपदेश करता हूँ। हठप्रदीपिका में अन्यत्र भी कहा है कि आसन, प्राणायाम, मुद्राएँ आदि राजयोग की साधना तक पहुँचाने के साधन हैं-

पौठानि कुम्भकाचिञ्ञ दिव्यानि करणानि च। 

सर्वाण्यपि हठाभ्यासे राजयोग फलावचि:।। (हठ प्रदीपिका-1/67) 

यह हठयोग भवताप से तप्त लोगों के लिए आश्रयस्थल् के रूप में है तथा सभी योगाभ्यासियों के लिए आधार है।

अशेषतापतसानां समाश्रयमठे हठः । 

अशेषयोगयुक्तानामाधारकमठौ हठः ।। (हठ प्रदीपिका 1/10) 

इसका अभ्यास करने के पश्चात् अन्य योगप्रविधियों में सहज रूप से सफलता प्राप्त की जा सकती है। कहा गया है कि यह हठविद्या गोपनीय है और प्रकट करने पर डसकी शक्ति क्षीण हो जाती है। 

हठविद्यां परं गोप्या योगिनां सिद्धिमिच्छताम। 

भवेद् वीर्यवती गुप्ता निर्वीर्या तु प्रकाशिता ।। (हठ प्रदीपिका 1/11) 

इसलिए इस विद्या का अभ्यास एकान्त में करना चाहिए जिससे अधिकारी जिज़ासु तथा साधकों के अतिरिक्त सामान्य जन इसकी क्रियाविधि को देखकर स्वयं अभ्यास करके हानिग्रस्त न हों। साथ ही अनाधिकारी जन इसका उपहास न कर सकें। स्मरण रहे कि जिस काल में हठयोगप्रदीपिका की रचना हुई थी, वह काल योग के प्रचार प्रसार का नहीं था। तब साधक ही योगाभ्यास करते थे। सामान्यजन योगाभ्यास को केवल ईश्वरप्राप्ति के उद्देश्य से की जाने वाली साधना के रूप में जानते थे। आज स्थिति बदल गई है। योगाभ्यास जन-जन तक पहुँच गया है तथा प्रचार-प्रसार दिनों दिन प्रगति पर है। लोग इसकी महत्ता को समझ गए है तथा जीवन में ढालने के लिए प्रयत्नशील हो रहे हैं। 

हठयोग के उद्देश्य के दृष्टिकोण से विचार करने पर हम देखते हैं कि 'राजयोग साधना की तैयारी के लिए तो हठयोग उपयोगी है ही', इस मुख्य उद्देश्य के साथ अन्य कुछ प्रमुख उद्देश्य भी कहे जा सकते है जैसे स्वास्थ्य का संरक्षण, रोग से मुक्ति, सुप्त चेतना की जागृति, व्यक्तित्व विकास, जीविकोपार्जन तथा आध्यात्मिक उन्नति आदि। 
 


 
स्वास्थ्य का संरक्षण- शरीर स्वस्थ रहे। रोगग्रस्त न हो। इसके लिए भी हम हठयोग के अभ्यासों का आश्रय ले सकते हैं। 'षट्कर्मणा शोधनम', 'आसनेन भवेद दृठम', आदि कहकर षटकर्मों के द्वारा शरीर की शुद्धि करने पर दोषों के सम हो जाने से व्यक्ति सदा स्वस्थ बना रहता है। तथा आसनों के द्वारा मजबूत शरीर प्राप्त होता है  विभिन्न आसनों के अभ्यास से शरीर की मांसपेशियों को मजबूत बनाया जा सकता है तथा प्राणिक ऊर्जा संरक्षण से जीवनी शक्ति को बढ़ाया जा सकता है। शरीर में गति देने से सभी अंग प्रत्यंग चुस्त बने रहते हैं तथा शारीरिक कार्यक्षमता में वृद्धि होती है जिससे शरीर स्वस्थ रहता है। अत: हम कह सकते है कि स्वास्थ्य संरक्षण में हठयोग की महत्वपूर्ण भूमिका है। 

रोग से मुक्ति-  हठयोग के अभ्यासों को अब रोग निवारण के लिए भी प्रयुक्त किया जा रहा है। कहा भी गया है- 

“आसनेन रुजो हन्ति“। (घेरण्ड संहिता)


 
 'कुर्यात तदासनं स्थैर्यमारोग्यं चाइहगलाघवम'। (हठ प्रदीपिका- 1/17) 

विभिन्न आसनों का शरीर के विभिन्न अंगों पर जो प्रभाव पड़ता है, उससे तत्सम्बन्धी रोग दूर होते हैं। जैसे मत्स्येन्द्रासन का प्रभाव पेट पर अत्यधिक पड़ता है तो उदरविकारों में लाभदायक है। जठराग्नि प्रदीप्त होने के कारण कब्ज, अपच, मन्दाग्नि आदि रोग दूर होते हैं 

मत्स्येन्द्रपीठं जठरप्रदीप्तिं प्रचण्डरुग्मण्डलखण्डनास्त्रम् । 

अभ्यासतः कुण्डलिनी प्रबोधं चन्द्रस्थिरत्वं च ददाति पुंसाम् ।। (हठ प्रदीपिका-1/27) 

इसी प्रकार षटकर्मों का प्रयोग करके रोगनिवारण किया जा सकता है। जैसे धौति के द्वारा कास, श्वास, प्लीहा सम्बन्धी रोग, कुष्ठ रोग, कफदोष आदि नष्ट होते है- 

कास श्वास प्लीहा कुष्ठ कफरोगाँश्व विंशतिः। 

चोतिकर्मप्रभावेन प्रयान्त्येव न संशयः।। (हठ प्रदीपिका-2/25) 

नेति के द्वारा दृष्टि तेज होती है, दिव्य (सूक्ष्म) दृष्टि प्रदान करती है और स्कन्ध प्रदेश से ऊपर होने वाले रोगसमूहों को शीघ्र नष्ट करती है। 

कपालशोधिनी चैव दिव्यदृष्टिप्रदायिनी ।


 
जत्रूध्वजातरोगोघं नेतिराशु निहन्ति च ।। (हठ प्रदीपिका-2/31) 

यद्यपि आधुनिक वैज्ञानिक युग में आयुर्विज्ञान की नई-नई वैज्ञानिक खोज हो रही है। फिर भी अनेक रोग जैसे- मानसिक तनाव, मधुमेह, प्रमेह, उच्च रक्तचाप, निम्न रक्तचाप, साइटिका, कमरदर्द, सर्वाइकल स्पोंडोलाइटिस, आमवात, मोटापा, अर्श आदि अनेक रोगों को दूर करने के लिये तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाने के लिये योगाभ्यास कराया जा रहा है। 

सुप्त चेतना की जागृति- उचित मार्गदर्शन में हठयोग का अभ्यास करने से शरीर आसानी से वश में हो जाता हैं। जब शरीर स्थिर और मजबूत हो जाता है तो प्राणायाम द्वारा श्वास को नियंत्रित किया जा सकता है। प्राण नियंत्रित होने पर मूलाधार में स्थित शक्ति को ऊर्ध्वगामी कर सकते हैं। प्राण के नियंत्रण से मन भी नियंत्रित हो जाता है। अतः मनोनिग्रह तथा प्राण-अपान संयोग से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर ब्रह्मनाड़ी में गति कर जाती है जिससे साधक को अनेक योग्यताए स्वतः प्रापत हो जाती हैं। अत: हम कह सकते है कि हठयोग के अभ्यास से सुप्त चेतना की जागृति होती है। 

व्यक्तित्व विकास- साधक हठयोग के अभ्यासों को अपनाकर निज व्यक्तित्व का विकास करने में समर्थ होता है। उसमें मानवीय गुण स्वतः आ जाते हैं। शरीर गठीला, निरोग, चुस्त, कांतियुक्त तथा गुणों से पूर्ण होकर व्यक्तित्व का निर्माण होता है। ऐसे गुणों को धारण करके उसकी वाणी में मृदुता, आचरण में पवित्रता, व्यवहार में सादगी, स्नेह, आदि का समावेश साधक के व्यक्तित्व में हो जाता है। 

जीविकोपार्जन-  आज देश ही नहीं, विदेशो में भी योगाभ्यास जीविकोपार्जन का एक सशक्त माध्यम बन गया है। देश में ही अनेक योग प्रशिक्षण केन्द्र, चिकित्सालय, विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय योग के प्रचार प्रसार में लगे हैं। रोगोपचार के लिए व्यक्तिगत रूप से लोग योग प्रशिक्षक को बुलाकर चिकित्सा ले रहे हैं तथा स्वास्थ्य संरक्षण हेतु प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। विदेशो में तो भारत से भी अधिक जागरूकता है। अतः जीविकोपार्जन के लिए भी हठयोग को अपनाया जा रहा है। 

आध्यात्मिक उन्नति- कुछ लोग वास्तव में जिज्ञासु हैं जो योग द्वारा साधना में सफल होकर साक्षात्कार करना चाहते हैं। उनके लिए तो यह योग है ही। साधक साधना के लिए आसन प्राणायाम आदि का अभ्यास करके दृढता तथा स्थिरता प्राप्त करके ध्यान के लिए तैयार हो जाता है। ध्यान के अभ्यास से समाधि तथा साक्षात्कार की अवस्था तक पहुँचा जा सकता है। अतः आध्यात्मिक उन्नति हेतु भी हठयोग एक साधन है। गुह्य समाजतंत्र में कहा गया है कि यदि ज्ञानप्राप्ति (बोध) न हो तो हठयोग का अभ्यास करें-“यदा न सिद्धयते बोधिहठयोगेन साधयेत्“
अर्थात् पूर्व में बताई गई विधि से यदि बोधिप्राप्त न हो तो हठयोग का आश्रय लेना चाहिए। राजयोग साधना का आधार होने के कारण हठयोग को भी राजयोग के समकक्ष स्थान प्राप्त है। अत: हम कह सकते है कि आध्यात्मिक उन्नति का हठयोग महत्वपूर्ण सोपान है। 


हठयोग प्रदीपिका का सामान्य परिचय
घेरण्ड संहिता का सामान्य परिचय


अष्टांग योग

चित्त | चित्तभूमि | चित्तवृत्ति
चित्त शब्द की व्युत्पत्ति 'चिति संज्ञाने' धातु से हुई है। ज्ञान की अनुभूति के साधन को चित्त कहा जाता है। जीवात्मा को सुख दुःख के भोग हेतु यह शरीर प्राप्त हुआ है। मनुष्य द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, या सुख दुःख का भोग किया जाता है, वह इस शरीर के माध्यम से ही सम्भव है। कहा भी गया  है 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात प्रत्येक कार्य को करने का साधन यह शरीर ही है। इस शरीर में कर्म करने के लिये दो प्रकार के साधन हैं, जिन्हें बाह्यकरण व अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। बाह्यकरण के अन्तर्गत हमारी 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं 5 कर्मेन्द्रियां आती हैं। जिनका व्यापार बाहर की ओर अर्थात संसार की ओर होता है। बाह्य विषयों के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क से अन्तर स्थित आत्मा को जिन साधनों से ज्ञान - अज्ञान या सुख - दुःख की अनुभूति होती है, उन साधनों को अन्तःकरण के नाम से जाना जाता है। यही अन्तःकरण चित्त के अर्थ में लिया जाता है। योग दर्शन में मन, बुद्धि, अहंकार इन तीनों के सम्मिलित रूप को चित्त के नाम से प्रदर्शित किया गया है। परन्तु वेदान्त दर्शन अन्तःकरण चतुष्टय की

  हठप्रदीपिका के अनुसार षट्कर्म हठयोगप्रदीपिका हठयोग के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता योगी स्वात्माराम जी हैं। हठयोग प्रदीपिका के द्वितीय अध्याय में षटकर्मों का वर्णन किया गया है। षटकर्मों का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम  जी कहते हैं - धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।  कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।। (हठयोग प्रदीपिका-2/22) अर्थात धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि और कपालभोंति ये छ: कर्म हैं। बुद्धिमान योगियों ने इन छः कर्मों को योगमार्ग में करने का निर्देश किया है। इन छह कर्मों के अतिरिक्त गजकरणी का भी हठयोगप्रदीपिका में वर्णन किया गया है। वैसे गजकरणी धौतिकर्म के अन्तर्गत ही आ जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है 1. धौति-  धौँति क्रिया की विधि और  इसके लाभ एवं सावधानी- धौँतिकर्म के अन्तर्गत हठयोग प्रदीपिका में केवल वस्त्र धौति का ही वर्णन किया गया है। धौति क्रिया का वर्णन करते हुए योगी स्वात्माराम जी कहते हैं- चतुरंगुल विस्तारं हस्तपंचदशायतम। . गुरूपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्गसेत्।।  पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं धौतिकर्म तत्।। (हठयोग प्


 योग आसनों का वर्गीकरण (Classification of Yogaasanas) आसनों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए इन्हें तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है (1) ध्यानात्मक आसन- ये वें आसन है जिनमें बैठकर पूजा पाठ, ध्यान आदि आध्यात्मिक क्रियायें की जाती है। इन आसनों में पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन, सुखासन, वज्रासन आदि प्रमुख है। (2) व्यायामात्मक आसन- ये वे आसन हैं जिनके अभ्यास से शरीर का व्यायाम तथा संवर्धन होता है। इसीलिए इनको शरीर संवर्धनात्मक आसन भी कहा जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य के संरक्षण तथा रोगों की चिकित्सा में भी इन आसनों का महत्व है। इन आसनों में सूर्य नमस्कार, ताडासन,  हस्तोत्तानासन, त्रिकोणासन, कटिचक्रासन आदि प्रमुख है। (3) विश्रामात्मक आसन- शारीरिक व मानसिक थकान को दूर करने के लिए जिन आसनों का अभ्यास किया जाता है, उन्हें विश्रामात्मक आसन कहा जाता है। इन आसनों के अन्तर्गत शवासन, मकरासन, शशांकासन, बालासन आदि प्रमुख है। इनके अभ्यास से शारीरिक थकान दूर होकर साधक को नवीन स्फूर्ति प्राप्त होती है। 
:-Yogacharya pt.
 Sunil Nadekar
(Shri Pragya Sewa Kendra, Saikheda Thana tag Multai,Dist.Betul mp)

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